वंश परंपरा में गोत्र, प्रवर और शाखा क्या होती है?
वर्तमान में यदि कोई जानकार अपना परिचय देगा तो अपना गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, शर्म, देवता, आवंटक आदि को बताना होगा। अब हम जानते हैं कि यह सब क्या होता है।
गोत्र : गोत्र का अर्थ है कि वह व्यक्ति किस ऋषि के कुल का है। जैसे किसी ने कहा कि मेरे गोत्र भारद्वाज है तो उसके कुल के ऋषि भारद्वाज हुए। अर्थात भारद्वाज के कुल से संबंध रखता है। भारद्वाज उसके कुल के आदि पुरुष है। वैदिक सिद्धांतों के अनुसार, ब्राह्मण ऋषियों के प्रत्यक्ष वंशज हैं। (1) अत्रि, (2) भारद्वाज, (3) गौतम महर्षि, (4) जमदग्नि, (5) कश्यप, (6) वशिष्ठ और (7) विश्वामित्र। सप्तऋषि और अगत्स्य ऋषि इन आठ ऋषियों को गोत्रकारिन कहा जाता है, जिनसे सभी 108 गोत्र (विशेष रूप से ब्राह्मणों के) विकसित हुए हैं। प्रवर :प्रवर के वैसे तो अर्थ श्रेष्ठ होता है। गोत्रकारों के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। जैसे भारद्वाज ऋषि के वंश में अपने कर्मो द्वारा कोई व्यक्ति ऋषि होकर महान हो गया है जो उसके नाम से आगे वंश चलता है। यह मील के पत्थर जैसे है। मूल ऋषि के कुल में तीन, पांच या सात आदि महान ऋषि हो चले हैं। मूल ऋषि के गोत्र के बाद जिस ऋषि का नाम आता है उसे प्रवर कहते हैं। शाखा : मान लो कि किसी एक ऋषि की कुल संतान को एक ऋग्वेद के ही संरक्षण का कार्य सौंप दिया गया तो फिर यह भी समस्या थी कि इतने हजारों मंत्रों को कोई एक ही याद करके कैसे रखे और कैसे वह अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करें। ऐसे में वेदों की शखाओं का निर्माण हुआ। ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढ़ने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होंने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया। मतलब यह कि उदाहरणार्थ किसी का गोत्र अंगिरा, प्रवर भारद्वाज और वेद ऋग्वेद एवं ऋग्वेद की 5 शाखाओं में से उसकी शाखा शाकल्प है।
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